Friday 22 February 2019

एक्सपर्ट टिप्स : बच्चों का उज्जवल भविष्य चाहते हैं पेरेंट्स, तो न रखें उनसे कोई उम्मीदें

बच्चों में सुधार होने के बजाय वह लापरवाह और आत्मविश्वासहीन होते हैं।
ऐक्टिविटीज बच्चों की रुचि से जुड़ी हों तो वे बहुत खुश रहते हैं। 
भाई-बहनों या दोस्तों से कभी भी अपने बच्चों की तुलना न करें।
हर पेरेंट्स चाहते हैं कि उनका बच्चा एकदम एक्टिव और सब बच्चों से आगे हो। अपनी इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए पेरेंट्स किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं। इस बात में कोई शक नहीं है कि हर माता पिता अपने बच्चों का भला ही सोचते हैं। लेकिन कई बार बच्चों की लाइफ में ज्यादा दखल देना या उन्हें हर बात पर टोकना या बच्चों से ऐसी उम्मीद रखना कि वह वैसा ही करें जैसा आप उनसे उम्मीद रखते हैं तो यह आपकी सबसे बड़ी भूल है। क्योंकि इससे बच्चों में सुधार होने के बजाय वह लापरवाह और आत्मविश्वासहीन होते हैं। बच्चों के लाइफस्टाइल को सरल और सुचारु बनाने की कला पेरेंट्स में होनी चाहिए। अगर आप अपने बच्चों को अनुशासन में रहने की कला सिखा दें तो आपको कभी उन्हें टोकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आजकल ज्य़ादातर स्कूली बच्चों की दिनचर्या बहुत ज्यादा संकुचित हो गई है। लंबी छुट्टियों के दौरान उनकी ऐक्टिविटी क्लासेज़ की लिस्ट में और भी इजाफा हो जाता है। सुबह छह बजे से रात नौ बजे तक, 15 घंटे के बीच बच्चे को कुल मिलाकर बड़ी मुश्किल से सिर्फ आधे घंटे का ब्रेक मिल पाता है।

क्यों होता है ऐसा
बच्चों में ऐसी व्यस्तता की वजह क्या है? इस संबंध में दिल्ली स्थित सर गंगाराम हॉस्पिटल की कंसल्टेंट-क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. आरती आनंद कहती हैं, 'आजकल महानगरों में रहने वाले कामकाजी माता-पिता के पास बच्चों के लिए ज़रा भी वक्त नहीं होता है। उन्हें स्कूल भेजने के बाद वे खुद भी ऑफिस के लिए निकल जाते हैं। ट्रैफिक की वजह से शाम को घर पहुंचने में लगभग आठ बज जाते हैं। न्यूक्लियर फेमिली में रहने वाले पेरेंट्स के सामने सबसे बड़ी समस्या यह होती हे कि स्कूल से लौटने के बाद पांच-छह घंटे बच्चे को घर में अकेला कैसे छोड़ा जाए? घर पहुंच कर बच्चे अपनी बोरियत मिटाने के लिए विडियो गेम्स या नेट सर्फिंग का सहारा लेते हैं। इसी वजह से आजकल बच्चों में इंटरनेट एडिक्शन तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। ऐसी ही आदतों से बचाने के मकसद से उन्हें कई तरह की रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त रखना पेरेंट्स की मजबूरी है। इसके अलावा आज के बच्चों में इतनी एनर्जी होती है कि वे पल भर के लिए भी खाली बैठना पसंद नहीं करते।



उनकी इसी एनर्जी को सही दिशा में चैनलाइज़ करने के लिए पेरेंट्स उन्हें उनकी रुचि से जुड़ी एक्टिविटीज़ में व्यस्त रखने की कोशिश करते हैं।' इसके अलावा आजकल आत्मकेंद्रित महानगरीय जीवनशैली में बच्चों का समाजीकरण एक बड़ी समस्या है। पास-पड़ोस के परिवारों में अगर उनका कोई हमउम्र दोस्त न हो तो यह समस्या और भी विकट हो जाती है। डॉ. आरती आनंद आगे कहती हैं, 'अगर ऐक्टिविटीज बच्चों की रुचि से जुड़ी हों और उनका एनर्जी लेवल हाइ हो तो वे अपनी व्यस्त दिनचर्या में भी बहुत खुश रहते हैं। इससे उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलता है और उनके व्यक्तित्व का विकास संतुलित ढंग से होता है। दिक्$कत तब शुरू होती है, जब माता-पिता अपने बच्चे की क्षमता और रुचियों की परवाह किए गए बगैर जबरन उन पर ऐक्टिविटीज़ में शामिल होने का दबाव डालते हैं।

कुछ अधूरे सपने
पढ़ाई से लेकर स्पोट्र्स तक हर फील्ड में अपने बच्चे को अव्वल नंबर पर देखने की चाहत एक हद तक स्वाभाविक है, लेकिन कुछ पेरेंट्स इसके लिए बच्चों पर बहुत ज्य़ादा दबाव डालते हैं। दरअसल वे अपने सभी अधूरे सपने बच्चों के माध्यम से पूरे करना चाहते हैं। अपनी इस प्रबल इच्छा के आगे वे बच्चे की पसंद-नापसंद या परेशानियों की भी परवाह नहीं करते। नम्रता मिश्रा एक बैंक में कार्यरत हैं। वह कहती हैं, 'बचपन से ही मैं स्विमिंग सीखना चाहती थी, पर हमारे परिवार में लड़कियों को इसकी इजाज़त नहीं थी। मैं मन मसोस कर रह गई। जब मेरी बेटी का जन्म हुआ तो मैंने उसी व$क्त यह तय कर लिया था कि उसे स्विमिंग ज़रूर सिखाऊंगी। जब वह पांच साल की हो गई तो गर्मियों के मौसम में मैंने उसे स्विमिंग क्लासेज़ में भेजना शुरू कर दिया, पर उसे पानी से बहुत डर लगता था। वह पूल में उतरने को तैयार नहीं होती थी और बहुत ज्य़ादा रोती थी, लेकिन मुझ पर तो अपनी बेटी को स्विमिंग में परफेक्ट बनाने की धुन सवार थी। लगातार कोशिश के बाद वह किसी तरह पानी में उतरकर फ्लोटिंग करना तो सीख गई, लेकिन पूल के पानी से उसे स्किन एलर्जी हो गई। इतना ही नहीं, स्विमिंग के नाम से उसके मन में इतनी दहशत बैठ गई थी कि वह रोती हुई नींद में भी बड़बड़ाती कि 'मम्मी, प्लीज़ मुझे पानी में नहीं जाना।



अंतत: उसकी समस्या इतनी बढ़ गई कि मुझे स्किन स्पेशलिस्ट और चाइल्ड कांउसलर से सलाह लेनी पड़ी। उनके कहने पर मैंने उसकी स्विमिंग क्लासेज़ बंद करवा दी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपकी बेटी बहुत छोटी है। दो-चार वर्षों तक उसे अपनी मर्जी से खेलने-कूदने के लिए आज़ाद छोड़ दें। धैर्य के साथ उसकी रुचियों को पहचानें और उसकी रज़ामंजी के बाद ही उसे किसी ऐक्टिविटी क्लास में भेजना शुरू करें। अपनी उस गलती पर आज भी मुझे बहुत अफसोस होता है। बच्चों पर जबरन अपनी रुचियां और अधूरे सपने थोपने का हमें कोई अधिकार नहीं है।'

सवाल स्टेटस सिंबल का
आज के प्रदर्शनप्रिय समाज में महंगी ब्रैंडेड चीज़ों की तरह बच्चों की पढ़ाई और ऐक्टिविटीज़ से जुड़ी तमाम छोटी-बड़ी उपलब्धियां भी पेरेंट्स के लिए स्टेटस सिंबल बन गई हैं। वे हर मामले में रिश्तेदारों और पड़ोसियों से अपने बच्चे की तुलना करते हैं। वे अपने बच्चे से हमेशा 'कुछ और ज्य़ादा' हासिल करने की उम्मीद रखते हैं। भले ही अपना बेटा स्कूल की फुटबॉल टीम का सबसे अच्छा प्लेयर हो, लेकिन जब पड़ोस का बच्चा चेस की चैंपियनशिप जीत कर घर लौटता है तो मां बड़े रश्$क के साथ अपने बच्चे से कहती है, 'तुम भी चेस खेलना क्यों नहीं सीखते?' लोगों के सामने परिवार का स्टेटस ऊंचा दिखाने के लिए बच्चे के आगे ढेर सारी उम्मीदों का अंबार लगा देना उसके साथ बड़ी ज्य़ादती होगी।

सहजता से स्वीकारें
अभिभावक अकसर यह भूल जाते हैं कि हर बच्चा दूसरे से अलग होता है। उसके व्यक्तित्व में खूबियों के साथ कुछ खामियों का होना भी स्वाभाविक है। बच्चों से बेशुमार उम्मीदें रखने वाले अभिभावकों को एक बार ईमानदारी से अपने व्यक्तित्व का भी विश्लेषण करना चाहिए। क्या वे खुद उतने ही काबिल हैं, जितना कि अपने बच्चे को बनाना चाहते हैं? माता-पिता चाहे जैसे भी हों बच्चे के लिए वे उसके रोल मॉडल होते हैं। पेरेंट्स के साथ उसका प्यार बिना किसी शर्त के होता है। ऐसे में अपने बच्चों की उपलब्धियों के आधार पर उनके बीच प्यार का बंटवारा कहां तक उचित है? कुछ अच्छा करने पर अपने बच्चे को शाबाशी ज़रूरी देनी चाहिए, लेकिन प्रतियोगिता में पिछड़ जाने पर उसके प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाना अमानवीय है। यह न भूलें कि चाहे जैसा भी है, वह आपके लिए अनमोल है। उसे हर पल आपके प्यार भरे मार्गदर्शन की ज़रूरत है, फटकार की नहीं। इसलिए अपने बच्चे की खामियों को भी सहर्ष स्वीकारें और उसे भरपूर प्यार दें।



यह भी न भूलें
अपने संयत और प्यार भरे व्यवहार से उसे यह भरोसा दिलाएं कि आप उससे बहुत ज्य़ादा प्यार करते हैं और हर मुश्किल में उसके साथ होंगे।
टीनएजर्स को छोटी-छोटी बातों के लिए टोकना बंद कर दें।
केवल बच्चे की उपलब्धियों की नहीं, बल्कि नाकाम होने पर उसकी ईमानदार कोशिश की भी प्रशंसा ज़रूर करें।
भाई-बहनों या दोस्तों से कभी भी उसकी तुलना न करें।
उसे हर फील्ड में परफेक्ट बनाने की जल्दबाज़ी न दिखाएं। धैर्यपूर्वक उसकी रुचियों को पहचान कर उसे वही करने दें, जिसमें उसे सच्ची खुशी मिलती है।
यह ज़रूरी नहीं है कि हर बच्चा ओवर स्मार्ट या ऑलराउंडर हो। कुछ बच्चे जन्मजात रूप से शर्मीले होते हैं, पर इसके लिए उसे कोसना उचित नहीं है। उसके अन्य अच्छे गुणों को पहचान कर उनकी प्रशंसा करें। इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा। औसत दर्जे के छात्र भी आगे चलकर महान वैज्ञानिक या लेखक बन सकते हैं।
हमेशा उसके सामने उपदेश देने की मुद्रा में न रहें । बार-बार वही बातें सुनकर वह ऊबने लगेगा और आपसे दूर भागने की कोशिश करेगा।
उसके साथ रोज़ाना क्वॉलिटी टाइम बिताएं। उस दौरान उसकी $गलतियों पर रोक-टोक और पढ़ाई-लिखाई के बारे में कोई पूछताछ नहीं होनी चाहिए। उसके साथ बिलकुल सहज ढंग से हलकी-फुलकी बातें करें या कोई इंडोर गेम खेलें।

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